"भूतिया सरकारी बंगला | हिंदी में एक डरावनी सच्ची घटना पर आधारित कहानी"

 

"क्या आपने कभी सुना है सरकारी बंगला नंबर 13 का रहस्य? पढ़ें ‘भूतिया सरकारी बंगला’ — एक रोमांचक और डरावनी हिंदी कहानी जिसमें भूत-प्रेत, सच्चाई की लड़ाई

कचनपुर, उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा शहर। साल 1998। सरकारी तबादलों का दौर चल रहा था। इन्हीं तबादलों में लोक निर्माण विभाग (PWD) के जूनियर इंजीनियर राघव मिश्रा का तबादला भी कचनपुर में हो गया। कचनपुर में सरकारी अफसरों के लिए आवास की व्यवस्था थी, और राघव को भी एक सरकारी बंगला आवंटित हुआ — बंगला नंबर 13।


बंगला शहर के बाहरी हिस्से में स्थित था। ऊँची दीवारें, जंग लगी लोहे की गेट, टूटती हुई छत, और जगह-जगह उग आई जंगली घासें। ऐसा लगता था जैसे वर्षों से कोई वहाँ रुका ही नहीं हो। जब राघव पहली बार उस बंगले में पहुँचे तो मन में हल्की सी घबराहट हुई, लेकिन फिर सोचा — “सरकारी बंगला है, मुफ्त में इतनी बड़ी जगह मिल रही है, थोड़ी मरम्मत करवा लूँगा तो ठीक हो जाएगा।”


लेकिन कचनपुर वालों की जुबान पर इस बंगले को लेकर कुछ और ही किस्से थे। बाजार में लोग धीरे-धीरे कानों में फुसफुसाते, “ये बंगला भूतिया है… रात में वहाँ से किसी औरत के रोने की आवाज़ आती है… पिछला साहब तो पागल होकर चला गया था…”


राघव हंसते और कहते — “भूत-वूत कुछ नहीं होते भैया, ये सब तुम्हारे दिमाग के भ्रम हैं।”


पहली रात की शुरुआत


शाम होते-होते बंगले में सन्नाटा पसरा हुआ था। बिजली आती-जाती रही, और रात करीब 2 बजे अचानक खिड़की ज़ोर से खुल गई। बाहर न हवा थी न कोई हलचल, लेकिन खिड़की अपने आप खुल गई थी। राघव की नींद खुल गई। बिस्तर से उठकर देखा — कमरे की दीवार पर नमी से बनी एक गीली आकृति उभर आई थी।


फिर अचानक दूसरे कमरे से किसी के चलने की आवाज़ आई।


“ठक… ठक… ठक…”


राघव ने हिम्मत कर मोबाइल की टॉर्च जलाई और आवाज़ की दिशा में बढ़े। बगल वाले कमरे का दरवाज़ा खुला हुआ था। अंदर देखा तो दीवार पर एक पुरानी तस्वीर टंगी थी। एक वृद्ध महिला की तस्वीर, जिसके नीचे लिखा था:


"स्व. श्रीमती कमला देवी (1901-1947)"


राघव उस तस्वीर को गौर से देख ही रहे थे कि अचानक उन्हें लगा किसी ने उनके कंधे पर हाथ रखा हो। वह पलटे… वहाँ कोई नहीं था।


बंगले का रहस्य


अगले दिन उन्होंने बंगले के पुराने चौकीदार हरीराम को बुलाया और पूरी बात बताई। हरीराम ने धीरे-धीरे उस बंगले का सच खोला।


"साहब… ये बंगला अंग्रेजों के जमाने का है। इस बंगले में कभी कमला देवी रहती थीं। उनका पति एक अंग्रेज अधिकारी के साथ भाग गया था। बदनामी और धोखे से टूटकर कमला देवी ने इसी बंगले में फांसी लगा ली थी। तब से उनकी आत्मा यहीं भटक रही है।"


राघव फिर भी भूत-प्रेत की बातों पर यकीन नहीं करते थे। उन्होंने तय कर लिया कि वो यहीं रहेंगे, चाहे कुछ भी हो जाए।


भूत से सामना


रात हुई। इस बार राघव पूरी तैयारी से थे। उन्होंने पूजा करवाई, हनुमान चालीसा पढ़ी और कमरे के चारों ओर दीप जलाए।


रात के तीन बजे।


फिर वही बदबू, वही खिड़की, वही आहटें।


लेकिन इस बार कमला देवी की आत्मा खुद प्रकट हुई। सफेद साड़ी, बिखरे बाल, लाल आंखें, चेहरे पर दर्द और असहायता की छाया।


उसने धीरे से कहा,


"मुझे इंसाफ चाहिए… मुझे इंसाफ दिलाओ…"


अब राघव समझ गए कि यह आत्मा कोई नुकसान पहुँचाने नहीं आई, बल्कि न्याय माँग रही थी।


इंसाफ की लड़ाई


राघव ने इस रहस्य को उजागर करने की ठान ली। पुराने सरकारी रिकॉर्ड खंगाले, कचनपुर की फाइलों से लेकर दिल्ली तक की जानकारी जुटाई। आखिरकार पता चला कि कमला देवी का पति और वह अंग्रेज अधिकारी आज भी जिंदा थे, दिल्ली में एक आलीशान जिंदगी जी रहे थे।


राघव ने केस दायर किया। सरकारी तंत्र का सहारा लिया। महीनों चली कानूनी लड़ाई के बाद दोनों को धोखाधड़ी और हत्या के आरोप में सज़ा हो गई।


मुक्ति


फैसले के दिन रात में जब राघव बंगले में लौटे तो उन्होंने महसूस किया कि हवा में अब कोई बदबू नहीं थी। कमरे में एक हल्की-सी फूलों की खुशबू थी। उस तस्वीर में कमला देवी का चेहरा अब उदास नहीं बल्कि शांत लग रहा था।


कमला देवी की आत्मा को मुक्ति मिल चुकी थी।


नई शुरुआत


अब बंगला नंबर 13 फिर से एक साधारण सरकारी बंगला बन चुका था। राघव वहाँ कई वर्षों तक रहे। उन्होंने कचनपुर में इज्ज़त कमाई, ईमानदारी से काम किया।


जब भी कोई उनसे पूछता,


"साहब, आपको डर नहीं लगा था?"


तो राघव बस मुस्कुराकर कहते,



“भूतों से नहीं, इंसानों की बुराइयों से डरना चाहिए।”



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समाप्त

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