कहानी:- ठंडे पहाड़ों पर रसोई





            कहानी:- ठंडे पहाड़ों पर रसोई



हिमाचल के एक छोटे से गाँव "बर्फगढ़" में, बर्फ से ढकी वादियों के बीच एक बूढ़ी अम्मा की रसोई हर दिन धुएँ और खुशबू से भर जाती थी। अम्मा का नाम था शांति देवी। उम्र 70 के पार थी, लेकिन जज़्बा ऐसा जैसे अभी भी पूरी दुनिया से लड़ जाएं।

गाँव में अक्सर सर्दियों में रास्ते बंद हो जाते, बिजली चली जाती, और कई बार खाने का सामान भी कम पड़ जाता। लेकिन अम्मा की रसोई में हमेशा कुछ ना कुछ पकता रहता — कभी गरमा गरम मक्के की रोटी और सरसों का साग, तो कभी मडुवे की रोटी और झर-झर बहता मांस का झोल।

एक दिन जब बर्फबारी इतनी ज़्यादा हुई कि गाँव के सारे घर सर्दी में ठिठुरने लगे, अम्मा ने अपनी रसोई का दरवाज़ा खोल दिया। गाँव के बच्चों से लेकर बूढ़ों तक, सब उसकी रसोई की गर्माहट में जुट गए।

अम्मा ने अपने पुराने तंदूर में आग जलाई, और सबसे पहले बनाई गुड़ वाली चाय, फिर बांसे के चावल से बना पुलाव, और एक बड़ी कढ़ाही में पकाया चना दाल का हलवा। उसकी रसोई अब सिर्फ खाना नहीं बनाती थी, बल्कि सर्द मौसम में रिश्तों की गर्मी भी बाँट रही थी।

एक छोटे बच्चे ने अम्मा से पूछा, “अम्मा, आपको सर्दी नहीं लगती?”

अम्मा मुस्कुराईं और बोलीं, “जब चूल्हे में आग और दिल में प्यार जलता है, तब कोई सर्दी नहीं लगती बेटा।”


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सीख

ठंडी वादियों में भी अगर मन में गर्मी हो, तो रसोई एक तपता हुआ चूल्हा बन जाती है — जहाँ सिर्फ खाना नहीं, बल्कि अपनापन और दया भी पकती है।

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